राजस्थान के सुदूर ग्रामीण अंचलों में जनमानस में अनेकानेक लोकदेवों एवं लोकदेवों एवं लोकदेवियों के लोकगीतों की मान्यता है, जिनकी गणना पौरणिक तीर्थों में तो नहीं की जाती, परन्तु सामान्यजन की असीमित श्रद्धा एवं विश्वास के कारण इन्हें पवित्रता का हेतु मानकर तीर्थरूप में स्वीकार कर लिया गया है | लोक आस्था के ये पावन धाम युगों युगों से प्राणीमात्र को शक्ति और सुख समृद्धि प्रदान कर रहे हैं |
मारवाड़ अंचल में प्रमुख पाँच लोकदेवताओं को पाबू जी, हड़बूजी, रामदेव जी, गोगा जी, एवं मांगलिया मेहा जी को पंच पीर माना गया है | उपरोक्त जनश्रुति का दोहा इस प्रकार है-
पाबू, हड़बू, रामदे, मांगलिया, मेहा।
पांचो पीर पधारज्यों, गोगाजी जेहा॥
लोक देवता श्री पाबूजी राठौड़ राजस्थान के लोक देवताओं में से एक माने जाते हैं। राजस्थान की संस्कृति में इन्हें विशेष स्थान प्राप्त है। पाबूजी राठौड़ उन लोगों में से एक थे, जिन्होंने लोक कल्याण के लिए अपना सारा जीवन दाँव पर लगा दिया और देवता के रूप में हमेशा के लिए अमर हो गए। पाबूजी को लक्ष्मणजी का अवतार माना जाता है। राजस्थान में इनके यशगान स्वरूप ‘पावड़े’ (गीत) गाये जाते हैं व मनौती पूर्ण होने पर फड़ भी बाँची जाती है। पाबूजी को लक्ष्मणजी का अवतार माना जाता है। ‘पाबूजी की फड़’ पूरे राजस्थान में विख्यात है। राजस्थान के लोक देवता श्री पाबूजी राठौड़ की संक्षिप्त जीवनी पढ़िए |
राठौड़ राजवंश के पाबूजी राठौड़ का जनम १३वीं शताब्दी ( वि. सं. १२९६) में फलौदी (जोधपुर) के निकट कोलुमण्ड में, पिता धांधल जी राठौड़ एवं माँ कमलादे के घर हुआ | ये राठौड़ों के मूलपुरुष राव सीहा के वंशज थे | इनका विवाह अमरकोट के राजा सूरजमल सोढा की पुत्री सुप्यारदे से हो रहा था की ये फेरों के बीच से ही उठकर अपने बहनोई जीन्दराव खींची से देवल चारणी ( जिसकी केसर कालमी घोड़ी मांग कर लाये थे ) की गायें छुड़ाने चले गए और देचूँ गाँव में वि.सं १३३३ में युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए | अर्धविवाहित सोढ़ी पाबूजी के साथ सती हो गई | इनकी यह यशगाथा पाबूजी की फड़ में संकलित है |


कौन है देवल चारणी? लोक देवता श्री पाबूजी राठौड़ ने देवल नामक चारण देवी को बहन बना रखा था | देवल के पास एक बहुत सुन्दर और सर्वगुण सम्पन्न घोड़ी थी. जिसका नाम था केसर कालवी | देवल अपनी गायों की रखवाली इस घोड़ी से करती थी | इस घोड़ी पर जायल के जिंदराव खिचीं की आँख थी | वह इसे प्राप्त करना चाहता था | जींदराव और पाबूजी में किसी बात को लेकर मनमुटाव भी था | विवाह के अवसर पर पाबूजी ने देवल देवी से यह घोड़ी मांगी | देवल ने जिंदराव की बात बताई | तब पाबू ने कहा कि आवश्यकता पड़ी तो वह अपना कार्य छोड़कर बिच में ही आ जायेगे | देवल ने घोड़ी दे दी |
प्लेग रक्षक एवं ऊंटों के देवता के रूप में पाबू जी की विशेष मान्यता है | कहा जाता है की मारवाड़ में सर्वप्रथम ऊँट (सांडे) लाने का श्रेय लोक देवता श्री पाबूजी राठौड़ जी को ही है | अतः ऊंटों के पालक राइका (रेबारी) जाती इन्हें अपना आराध्य देव मानते हैं | ये थोरी और भील जाती में अतिलोकप्रिय हैं तथा मेहर जाती के मुसलमान इन्हें पीर मान कर पूजा करते हैं |
पाबूजी केसर कालमी घोड़ी और बाईं ओर झुकी पग के लिए प्रसिद्ध हैं | इनका बोध चिन्ह भाला है|
कोलुमण्ड में इनका सबसे प्रमुझ मंदिर है, जहाँ प्रतिवर्ष चैत्र अमावस्या को मेला लगता है |
पाबूजी से सम्बंधित गाथा गीत ‘पाबूजी के पावड़े’ माठ वाद्य के साथ नायक एवं रेबारी जाती द्वारा गाये जाते हैं |


‘पाबूजी की पड़’ नायक जाती के भोपों द्वारा ‘रावणहत्था’ वाद्य के साथ बाँची जाती है |
चंदा-डेमा एवं हरमल पाबूजी के रक्षक सहयोगी के रूप में जाने जाते हैं |
पाबूजी गौरक्षक होने के साथ साथ अछूतोद्धारक भी थे |
श्री पाबूजी राठौड़ के पाँच प्रमुख साथी सरदार चांदो जी, सरदार सावंत जी, सरदार डेमा जी, सरदार हरमल जी राइका और सलजी सोलंकी थे, जिन पर इन्हें अटूट विशवास था |
थोरी जाती के लोग सारंगी के साथ पाबूजी की यश गाथा गाते हैं, जिसे यहाँ की स्थानीय बोली में ‘पाबू जी धणी रो बाचना’ कहते हैं |