महापंडित रावण के मुख से निकले थे शिव तांडव स्तोत्र, जिनमें छिपा है जीवन सफलता का मूल मंत्र

शिवपुराण में शिव तांडव स्तोत्र का उल्लेख कई बार किया गया है। कहते है इसका उच्चारण करना भी काफी कठिन होता है। माना जाता है यदि कालसर्प या पितृ दोष से पीड़ित व्यक्ति शिव तांडव स्तोत्र का उल्लेख करे तो वह सभी विकारों से मुक्त हो जाता है। ऐसे लोगों के लिए शिव तांडव स्तोत्र एक अमोघ औषधि का काम करता है। इस स्रोत का पाठ करने से ही व्यक्ति के सभी पाप दूर हो जाते है। इसका पाठ भी विधि-विधान के साथ किया जाता है। पुराणों के मुताबिक शिव तांडव स्तोत्र पढ़ते-पढ़ते महादेव को काले तिल से स्नान कराते रहना चाहिए। ऐसा करने से पीड़ित व्यक्ति के सभी कष्ट दूर होते है। शिव तांडव स्तोत्र का दाता लंकेश रावण को कहा जाता है, जिनके मुख से पहली बार इन स्रोत का उल्लेख हुआ था। रावण महाप्रतापी, महापंडित और महाशक्तिशाली था, जिसका अहंकार के वश में आ जाने के कारण भगवान राम ने अंत किया था। महापंडित रावण के मुख से निकले शिव तांडव स्तोत्र के पीछे एक रोचक कथा है। पुराणों के मुताबिक धन के देवता कुबेर और लंकेश रावण ऋषि विश्रवा की संतान थे। दोनों ही सौतेले भाई थे जिस वजह से दोनों के आचार-विचार भी काफी अलग थे। महाज्ञानी होने के बावजूद रावण हमेशा अपने अहंकार की वजह से पराजित होता रहा। रावण चारों वेदों का ज्ञाता, वास्तुकार, शिल्पकार, आयुर्वेद का महान ज्ञाता, संस्कृत का प्रकाण्ड पंडित, संगीतज्ञ और एक सफल राजनीतिज्ञ था। लेकिन उसका अहंकार उसके जीवन के अंत का सबसे बड़ा कारण बना। एक बार की बात है जब रावण अपने पुष्पक विमान में बैठकर आकाश की सैर कर रहा था। उसी वक्त एक पर्वत के नजदीक आकर पुष्पक विमान स्वयं ही धीमा हो गया। जिसे देखकर रावण हतप्रभ हो गया, ऐसे में शिवभक्त नंदेश्वर ने उन्हें समझाया कि महादेव ध्यान में है इसलिए उसे वहां से चले जाना चाहिए। अपने ज्ञान और शक्तियों के अहंकार से भरा रावण पर्वत को उठाकर मार्ग बनाने की जिद पर अड़ा रहा। ऐसे में उसने पर्वत की नींव पर हाथ रखा ही था कि महादेव ने ध्यान मुद्रा में बैठे-बैठे अपने प्रताप से रावण के अंगूठे को पर्वत की नींव के नीचे दबा दिया। जिसके कई जतन के बाद भी वह उससे मुक्त नहीं हो सका। महादेव के क्रोध को शांत करने के लिए इस परिस्तिथि में रावण ने शिव तांडव स्तोत्र गया, जो स्वयं उसी के द्वारा रचित था। शिव तांडव स्तोत्र को सुनकर महादेव प्रसन्न हुए और रावण को पीड़ा से मुक्त कर दिया। रावण की पीड़ा की वजह से उसके मुख से निकले संस्कृतनिष्ठ को शिव तांडव स्तोत्र कहा गया।
पढ़े शिव तांडव स्तोत्र और उनका भावार्थ
जटाटवीग लज्जलप्रवाहपावितस्थले … गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डम न्निनादवड्डमर्वयं … चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥
जिन शिव जी की सघन जटारूप वन से प्रवाहित हो, गंगा जी की धारा उनके कंठ को प्रक्षालित करती है … जिनके गले में बड़े और लंबे सांपो की मालाएं लटक रही है, जो शिव जी डम-डम डमरू बजा कर प्रचंड तांडव करते है। वे शिवजी हमारा कल्याण करें।
जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी … विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके… किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥
जिन शिव जी की जटाओं में तीव्र वेग से विलासपूर्वक भ्रमण कर रही देवी गंगा की लहरें उनके शीश पर लहरा रही है, जिनके मस्तक पर अग्नि की प्रचंड ज्वालायें धधक-धधक करके प्रज्वलित हो रही है, उन बाल चंद्रमा से विभूषित शिवजी में मेरा अंनुराग प्रतिक्षण बढ़ता रहे।
धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर … स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि … कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि॥3॥
जो पर्वतराजसुता के विलासमय रमणिय कटाक्षों में परम आनंदचित्त रहते है, जिनके मस्तक में संपूर्ण सृष्टि एवं प्राणी वास करते है, तथा जिनकी कृपादृष्टि मात्र से भक्तों की सभी परेशानियां दूर हो जाती है। ऐसे दिगंबर स्वरुप शिवजी की आराधना से मेरा चित्त कब आनंदित होगा।
ध्यान दे: यहां पर्वतराजसुता का संबंध माता पार्वती से है और दिगंबर का अर्थ आकाश को वस्त्र समान धारण करने वाले प्रभु महादेव से है।
जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा… कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे।
मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे … मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥
मैं उन शिवजी की भक्ति में आनंदित रहूं जो सभी प्राणियों के आधार एवं रक्षक है, जिनकी जटाओं में लिपटे सर्पों के फण की मणियों के प्रकाश पीले वर्ण प्रभा-समूह रूप केसर के कातिं से दिशाओं को प्रकाशित करते है और जो गजचर्म से विभूषित है।
सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर … प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः।
भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः … श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः॥5॥
इंद्र और समस्त देवताओं के सिर से सुसज्जित पुष्पों की धूलिराशि से धूसरित पादपृष्ठ वाले सर्पराजों की मालाओं से विभूषित जटा वाले प्रभु हमें चिरकाल के लिए संपदा दें। सीधे-सीधे शब्दों में जाने तो यहां रावण कहना चाहता है कि सर्पों को पहनने वाले हे महादेव हमें जीवनभर के लिए सुख-संपदा प्रदान करें।
ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा …निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम्।
सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं …महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः॥6॥
जिन शिव जी ने इंद्र और अन्य देवताओं का गर्व दहन करते हुए कामदेव को अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से भस्म कर दिया। तथा जो सभी देवों द्वारा पूज्य है और चन्द्रमा और गंगा द्वारा सुशोभित है, वह मुझे सिद्दी प्रदान करें।
कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल …द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक …प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम॥7॥
जिनके मस्तक से धक-धक करती प्रचंड ज्वाला ने कामदेव को भस्म कर दिया तथा जो शिव पार्वती जी के स्तन के अग्र भाग पर चित्रकारी करने में अति चतुर है (यहाँ पार्वती प्रकृति हैं, तथा चित्रकारी सृजन है), उन शिव जी में मेरी प्रीति अटल हो।
नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर …त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः …कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥
जिनका कंठ नवीन मेंघों की घटाओं से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि के सामान काला है, जो गज-चर्म, गंगा एवं बाल-चन्द्र द्वारा शोभायमान है, ऐसे जगत का बोझ धारण करने प्रभु महादेव जी हमे सभी प्रकार की संपन्नता प्रदान करें।
प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा…विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं …गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे॥9॥
जिनका कंठ और कन्धा पूर्ण खिले हुए नीलकमल की फैली हुई सुन्दर श्याम प्रभा से विभूषित है, जो कामदेव और त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दु:खो को हरने वाले, दक्षयज्ञ विनाशक, गजासुर एवं अन्धकासुर के संहारक है और जो मृत्यु को वश में करने वाले है, मैं उन प्रभु शिव जी की आराधना करता हूँ।
अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी …रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं …गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे॥10॥
जो कल्यानमय, अविनाशि, समस्त कलाओं के रस का अस्वादन करने वाले है, जो कामदेव को भस्म करने वाले हैं, त्रिपुरासुर, गजासुर, अन्धकासुर के सहांरक, दक्षयज्ञविध्वसंक तथा स्वयं यमराज के लिए भी यमस्वरूप हैं, मैं उन शिव जी का भजन करता हूं।
जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर …द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्-
धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल …ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः॥11॥
अत्यंत वेग से भ्रमण कर रहे सर्पों के फूफकार से ललाट में बढी हूई प्रचंण अग्नि के मध्य मृदंग की मंगलकारी उच्च धिम-धिम की ध्वनि के साथ तांडव नृत्य में लीन शिव जी सर्व प्रकार सुशोभित हो रहे हैं।
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो …र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः …समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे॥12॥
कठोर पत्थर एवं कोमल शय्या, सर्प एवं मोतियों की मालाओं, बहुमूल्य रत्न एवं मिट्टी के टूकडों, शत्रू एवं मित्रों, राजाओं तथा प्रजाओं, तिनकों तथा कमलों पर सामान दृष्टि रखने वाले शिव का मैं भजन करता हूँ।
कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन् …विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः …शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम्॥13॥
कब मैं गंगा जी के कछारगुञ में निवास करता हुआ, निष्कपट हो, सिर पर अंजली धारण कर चंचल नेत्रों तथा ललाट वाले शिव जी का मंत्रोच्चार करते हुए अक्षय सुख को प्राप्त करूंगा।
निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका …निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं …परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः॥14॥
देवांगनाओं के सिर में गूँथे पुष्पों की मालाओं के झड़ते हुए सुगंधमय पराग से मनोहर, परम शोभा के धाम महादेवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानंदयुक्त हमारेमन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें।
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी …महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः…शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्॥15॥
प्रचंड बड़वानल की भाँति पापों को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली देवकन्याओं से शिव विवाह समय में गान की गई मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, सांसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पाएं।
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं …पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं …विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम ॥16॥
इस परम उत्तम शिव तांडव स्त्रोत को प्रतिदिन पढ़ने या सुनने मात्र से प्राणी पवित्र हो, परंगुरू शिव में स्थापित हो जाता है तथा सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्त हो जाता है।
पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं …यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां …लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः॥17॥
प्रदोष समय में शिवपुजन के अंत में इस रावणकृत शिवताण्डवस्तोत्र के गान से लक्ष्मी स्थिर रहती हैं तथा भक्त रथ, गज, घोडा आदि सम्पदा से सर्वदा युक्त रहता है।
इति रावण कृतम् शिव – ताण्दव स्तोत्रम्।
महाज्ञानी, महापंडित लंकेश रावण के मुखमंडल से निकले शिव तांडव स्रोत का गायन मनुष्य जीवन में सफलता प्राप्ति के लिए करता है। ऐसा करने से भगवान शंकर की विशेष कृपा प्राप्त होती है। साथ ही प्रभु महादेव उसके जीवन में खुशियां और आंनद भर देते है। जीवन में सुख प्राप्ति के लिए और करियर में आकाश की बुलंदियों को छूने के लिए शिव तांडव स्रोत का गायन लाभकारी माना गया है। लेकिन संसार में कुछ विरले ही है जो इसे पढ़ पाते है।